उत्तराखण्ड
रेड अलर्ट में मॉक ड्रिल तो सफल, लेकिन असल आपदा में क्यों फेल हो जाता है सिस्टम?
रेड अलर्ट में मॉक ड्रिल तो सफल, लेकिन असल आपदा में क्यों फेल हो जाता है सिस्टम?
रामनगर/हल्द्वानी, एटम बम न्यूज डेस्क
उत्तराखंड के नैनीताल जिले में भारी बारिश की चेतावनी के बीच आज काठगोदाम, रामनगर, चोरगलिया और लालकुआं जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में मॉक ड्रिल आयोजित की गई। SSP प्रह्लाद नारायण मीणा के निर्देश पर इस अभ्यास का उद्देश्य था – आपदा की स्थिति में राहत व बचाव कार्यों की तैयारियों को परखना।
कागज़ों पर ये मॉक ड्रिल सफल रही। पुलिस, NDRF, SDRF, ITBP, मेडिकल और फॉरेस्ट विभाग की टीमें मुस्तैद रहीं। कुल 39 लोगों को रेस्क्यू किया गया, दर्जनों घायल ‘इलाज के लिए भेजे’ गए और कुछ परिवारों को राहत शिविरों में पहुंचाया गया।
लेकिन सवाल ये है कि मॉक ड्रिल में जो राहत और बचाव तंत्र इतनी तेजी से सक्रिय हो जाता है, वो असली आपदा के वक़्त अक्सर फेल क्यों हो जाता है?
जब स्क्रिप्ट तय हो, तो सब ठीक लगता है…
मॉक ड्रिल में सभी जानते हैं कि क्या होने वाला है, किसे कहां पहुंचना है, किसे कहां फंसा दिखाना है और कैसे दिखाना है कि रेस्क्यू हुआ। सब कुछ रिहर्सल की तरह। यही वजह है कि हर मॉक ड्रिल की रिपोर्ट में ‘टीमें सजग’, ‘कार्य कुशल’ और ‘तुरंत राहत’ जैसे शब्द भरे होते हैं। लेकिन जब असली त्रासदी आती है – तब हालात काबू से बाहर हो जाते हैं।
असली आपदा में दिखती है तैयारी की असलियत
उत्तराखंड में जब भी भारी बारिश या भूस्खलन हुआ, प्रशासन की कमजोरियां उजागर हुईं। समय पर एंबुलेंस नहीं पहुंची, राहत शिविर खाली पड़े रहे, NDRF का इंतज़ार लंबा चला और संपर्क साधनों की कमी ने हालात बिगाड़े। मॉक ड्रिल में दिखाई गई फुर्ती, ज़मीनी सच्चाई से अक्सर मेल नहीं खाती।
तैयारी असल में नहीं, सिर्फ दिखावे में होती है?
इस मॉक ड्रिल में दावा किया गया कि:
- 22 घायल अस्पताल भेजे गए
- 05 परिवारों को राहत केंद्र पहुंचाया गया
- जलभराव में फंसे बच्चों को बचाया गया
लेकिन जमीनी रिपोर्ट्स बताती हैं कि बीते वर्षों में इन्हीं इलाकों में बारिश के समय लोग खुद की जान बचाने को मजबूर होते हैं। कोई सिस्टम उनकी मदद को वक्त पर नहीं पहुंचता।
मॉक ड्रिल या मीडिया ड्रिल?
हर मॉक ड्रिल के बाद जारी प्रेस नोट में आंकड़े सजाए जाते हैं। कैमरों के सामने ‘पोज़’ दिया जाता है, वीडियो बनाए जाते हैं, और फिर प्रशासन चैन की सांस लेता है कि तैयारी पूरी है। लेकिन जब आपदा आती है – तो वही कैमरे दर्दनाक तस्वीरें दिखाते हैं – मलबे में दबे लोग, टूटे पुल, और सड़क पर घंटों एंबुलेंस का इंतज़ार करते घायल।
समाधान की ज़रूरत है, सिर्फ मॉक ड्रिल की नहीं
प्रशासन को चाहिए कि वो मॉक ड्रिल को सिर्फ एक इवेंट ना समझे, बल्कि इसे एक रियल-टाइम टेस्ट माने – जिसमें अधिकारियों की जिम्मेदारी तय हो, उपकरणों की तत्परता परखने के ठोस पैमाने हों, और जनता को भी इस प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए।
जनता को भी समझना होगा कि ‘ड्रिल’ और ‘डर’ में फर्क है
लोगों को भी मॉक ड्रिल को गंभीरता से लेना होगा। लेकिन प्रशासन की जिम्मेदारी इससे कहीं बड़ी है। उन्हें दिखावा नहीं, हकीकत में तैयार रहना होगा। क्योंकि जब अगली बार बादल फटेंगे या नदी उफनेगी – तब ये प्रेस नोट काम नहीं आएंगे, काम आएंगे वो फैसले जो अब लिए जाएंगे।
मॉक ड्रिल को ‘शो ऑफ फोर्स’ बनाने से बेहतर है कि इसे रियल टेस्ट ऑफ रेस्पॉन्स बनाया जाए। वरना मॉक ड्रिल की फुर्ती और असली आपदा की बदहाली के बीच का फासला हर साल किसी ना किसी की जान लेता रहेगा।
🖊 रिपोर्ट: खुशाल रावत
संपादक – एटम बम
📍www.atombombnews.com | रामनगर (उत्तराखंड)







