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उत्तराखण्ड

नन्हे मुन्ने बच्चों ने फूलों से सजाई दहलीज, होली संग खिला उत्तराखंड का अनोखा पर्व ‘फूलदेई’

उत्तराखंड में फूलों की बारिश! बसंत के स्वागत में खिले रंग, संस्कृति की महक से गुलजार हुई देवभूमि

रामनगर (नैनीताल):उत्तराखंड की सुरम्य वादियों में इस समय हर आंगन, हर चौखट पर प्रकृति की अनुपम भेंट चढ़ाई जा रही है। बसंत ऋतु के आगमन के साथ यहां फूलदेई की खुशबू हर गली-मोहल्ले में फैल रही है। यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति से प्रेम, समाज में सौहार्द और परंपराओं की जीवंत विरासत है, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़ती है।

बच्चों की किलकारियों संग खिला फूलदेई पर्व

सुबह की पहली किरण के साथ ही नन्हे-मुन्ने बच्चे उत्साह से खेतों, बागों और जंगलों की ओर दौड़ पड़ते हैं, जहाँ वे रंग-बिरंगे फूल चुनते हैं। फिर वे पूरे गांव में घूमकर हर घर की दहलीज पर फूल बिखेरते हैं और मंगलकामना करते हैं। बदले में उन्हें गुड़, चावल, मिठाइयाँ और उपहार मिलते हैं, जिससे उनकी खुशी दोगुनी हो जाती है।

स्थानीय बुजुर्ग गणेश रावत कहते हैं—
“फूलदेई सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने का एक सुंदर माध्यम है। यह पर्व बच्चों को प्रकृति और समाज के प्रति जिम्मेदार बनाता है।”

फूलों और संस्कृति का संगम, देवताओं की कृपा का पर्व

उत्तराखंड में मान्यता है कि जो बच्चे इस दिन घर-घर जाकर फूल चढ़ाते हैं, उन पर देवताओं की विशेष कृपा बनी रहती है। यह पर्व न केवल संस्कृति को संरक्षित करता है, बल्कि प्रकृति के संरक्षण और पर्यावरण जागरूकता का संदेश भी देता है।

इस बार फूलदेई और होली का अद्भुत संयोग!

इस वर्ष फूलदेई और होली एक साथ आने से त्योहार की खुशियां और भी बढ़ गई हैं। जहाँ एक ओर होली के रंगों से गांव गुलजार हो रहे हैं, वहीं फूलदेई की सुगंध उत्तराखंड को नई ऊर्जा से भर रही है।

बदलते समय में अपनी जड़ों से जुड़ने का संदेश

आज के आधुनिक युग में, जब युवा पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति की ओर आकर्षित हो रही है, ऐसे में फूलदेई जैसे पर्व हमें अपनी जड़ों की याद दिलाते हैं। यह हमें सिखाता है कि कैसे हम अपनी संस्कृति और प्रकृति को सहेज सकते हैं और अगली पीढ़ी को इसका महत्व समझा सकते हैं।

बुजुर्गों का कहना है—
“हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे अपनी संस्कृति से जुड़े रहें, क्योंकि फूलदेई सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि प्रकृति और देवभूमि के प्रति आभार प्रकट करने की एक सजीव परंपरा है।”

इस फूलों की महक को सहेजें, अपनी परंपरा को जीवित रखें!

तो क्या आपने भी अपने घर की दहलीज पर फूल बिखेरे? अगर नहीं, तो इस पर्व को सहेजें, मनाएं और अपनी सांस्कृतिक विरासत को अगली पीढ़ी तक पहुंचाएं।

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नाम: खुशाल सिंह रावत
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