Connect with us

उत्तराखण्ड

उत्तराखंड: “जमीनी कार्यकर्ता” के दावे में “जमीनों के सौदागर” की एंट्री!

काशीपुर:भाजपा, जो अपने “जमीनी कार्यकर्ताओं” को सम्मान देने और चुनावी टिकट में प्राथमिकता देने का दावा करती है, इस बार अपने ही दावों के खिलाफ नजर आई है। निकाय चुनाव में भाजपा ने कुछ ऐसे चेहरों को टिकट दे दिया है, जिनकी पार्टी के प्रति निष्ठा पर सवाल उठना स्वाभाविक है। इनमें से एक नाम है डी. बाली, जो न तो भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता हैं, और न ही संगठन में उनकी कोई उल्लेखनीय भूमिका रही है।

“जमीन” से जुड़े, पर “जमीन पर” नहीं
डी. बाली का परिचय अगर देना हो, तो वे भाजपा के “जमीनी कार्यकर्ता” भले न हों, लेकिन “जमीनों के सौदागर” जरूर हैं। रियल एस्टेट के बड़े कारोबारी और करोड़पति डी. बाली 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को छोड़ आम आदमी पार्टी (AAP) का दामन थामकर “झाड़ू” लेकर मैदान में उतरे थे। काशीपुर से विधायक बनने का सपना देखने वाले बाली, भाजपा का “कमल” छोड़कर AAP की राजनीति में कूदे, लेकिन मतदाताओं ने उन्हें नकार दिया।

‘आप’ से ‘कमल’ की वापसी
दिल्ली में आम आदमी पार्टी के खिलाफ ईडी की जांच और छापों के बीच डी. बाली ने भी अपनी राजनीति की “सेफ्टी स्विच” पलट दी। उन्होंने AAP छोड़ते ही भाजपा में वापसी कर ली। इस “घर वापसी” के पीछे उनका मकसद “पावर” से जुड़े रहकर खुद को सुरक्षित रखना ज्यादा नजर आता है।

‘सीएम की कृपा’ से टिकट?
इस बार के निकाय चुनाव में डी. बाली को भाजपा ने टिकट देकर साबित कर दिया कि पार्टी के “जमीनी कार्यकर्ताओं” के बजाय, “जमीनों के कारोबारियों” को प्राथमिकता दी जा रही है। पार्टी के भीतर चर्चाएं हैं कि डी. बाली को टिकट दिलाने के पीछे मुख्यमंत्री से उनकी नजदीकी अहम वजह रही है। यह नजदीकी हर आम कार्यकर्ता या छोटे पदाधिकारी को नसीब नहीं होती।

“गरियाने से गले लगाने तक” का सफर
चौंकाने वाली बात यह है कि डी. बाली ने विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा और उसके विधायकों को खुलकर निशाना बनाया था। लेकिन अब, वही भाजपा उन्हें गले लगाकर अपना “निकाय उम्मीदवार” बना रही है। यह न सिर्फ पार्टी के कार्यकर्ताओं के मनोबल पर असर डालता है, बल्कि पार्टी की विचारधारा और उसके मूलभूत सिद्धांतों पर भी सवाल खड़े करता है।

कटाक्ष
भाजपा के इस कदम पर कार्यकर्ताओं में गुस्सा है, लेकिन शीर्ष नेतृत्व का मानना है कि “राजनीति में सब माफ है।” सवाल यह है कि जब पार्टी अपने ही निष्ठावान कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर ऐसे “बाहरी” चेहरों को टिकट दे रही है, तो इसका संदेश जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए क्या होगा?

क्या ‘पार्टी विद डिफरेंस’ का नारा खोखला है?
भाजपा हमेशा से खुद को “पार्टी विद डिफरेंस” कहती रही है, लेकिन डी. बाली जैसे उदाहरण इस दावे की हकीकत उजागर करते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि निकाय चुनाव में मतदाता इस “टिकट राजनीति” पर क्या फैसला सुनाते हैं।

 

More in उत्तराखण्ड

You cannot copy content of this page