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उत्तराखण्ड

“भुला, वोट बिकणी छै! पंचायत चुनाव में ‘लक्ष्मी कृपा’ का जलवा”

“रिसॉर्ट-शरण में लोकतंत्र: पंचायत चुनाव में ‘लक्ष्मी दाई’ का जलवा”

देहरादून/नैनीताल –
उत्तराखंड का पंचायत चुनाव आते ही पहाड़ की राजनीति में जो नजारा दिखता है, वो किसी लोकगीत या मेले में नहीं, सीधे किसी लक्ज़री रिसॉर्ट में मिलता है। गाँव-गाँव से चुनकर आए पंचायत सदस्य, जिनसे लोग “गाँव का विकास” करने की उम्मीद रखते हैं, 31 जुलाई को जीतने के बाद से ऐसे गायब हुए हैं मानो किसी “भुला की बारात” में गए हों। हकीकत में ये “जनसेवक” होटल और रिसॉर्ट में “AC सेवा” का आनंद ले रहे हैं—वो भी मुफ्त का, क्योंकि बिल तो पंचायत प्रमुख बनने का ख्वाब देखने वाला दावेदार भर रहा है।

‘बोली लगनी छै भुला, वोट बिकणी छै’
पिछले 15-20 सालों का रिकॉर्ड खोलकर देख लो—पंचायत प्रमुख की कुर्सी पर वही जमता है जो पंचायत सदस्यों की खरीद-फरोख्त का “दामखम” रखता है। गाँव के लोग भले कहें कि “ई आदमी त एकदम ठुल-ठुल (ईमानदार) छै”, लेकिन चुनाव आते ही सारे ठुल-ठुल सीधे “ठुला (पैसा)” में बदल जाते हैं।
ये निर्वाचित सदस्य गाँव के गलियों में नज़र नहीं आते, बल्कि रिसॉर्ट के ‘इन्फिनिटी पूल’ के किनारे नींबू पानी पीते और वाट्सऐप स्टेटस डालते मिल जाते हैं—
“लोकेशन – सीक्रेट”
पर गाँव के लोग समझ जाते हैं—लोकेशन रिसॉर्ट है और मकसद “बिकने का मौका”।

विपक्ष से बचाव का ‘रिसॉर्ट टीका’
जो दावेदार पंचायत प्रमुख बनना चाहता है, वो अपने समर्थक सदस्यों को “विपक्षी संपर्क” से बचाने के लिए उन्हें दूर-दराज़ के होटल या जंगल के बीच बने लक्ज़री रिसॉर्ट में भेज देता है। इसे आप लोकतंत्र का “क्वारंटाइन सेंटर” भी कह सकते हैं। यहाँ का नियम साफ है—बाहर जाना मना, विपक्ष से बात करना मना, और सबसे जरूरी—किसी को बिल का पता नहीं चलेगा।

लक्ष्मी दाई की एंट्री
इन रिसॉर्ट वाली मीटिंग्स में सबसे इज्जतदार मेहमान होती हैं “लक्ष्मी दाई”—जो नकद या चेक, दोनों रूप में आती हैं। लक्ष्मी दाई जिस उम्मीदवार के पक्ष में बैठ जाएं, जीत उसी की पक्की। फिर चाहे वो उम्मीदवार गाँव के विकास का मतलब अपने खेत में पक्की चारदीवारी बनाना ही क्यों न समझता हो।

निर्विरोध का खेल
उत्तराखंड के कई इलाकों में पंचायत प्रमुख निर्विरोध चुने गए हैं। लोगों को लगता है ये “सर्वसम्मति” है, लेकिन हकीकत में ये “सर्वसहमति से पहले सर्वभुगतान” होता है। जहाँ निर्विरोध नहीं हुआ, वहाँ कल मतदान है और “धनबल” का मुकाबला ‘ढोल-दमाऊ’ जितना शोर मचा रहा है।

कल का नज़ारा
कल जब वोट डालने का समय आएगा, तो ये रिसॉर्ट से लौटे नेता ऐसे मुस्कुराएंगे जैसे अभी-अभी नंदा देवी यात्रा से लौटे हों। गाँव में आएंगे, अपने समर्थक उम्मीदवार का नाम लेंगे, और कहेंगे—
“भुला, हम तो रिश्तेदारी में गे थे।”
गाँव वाले भी ठहाका लगाकर जवाब देंगे—
“हां-हां, रिश्तेदारी में लक्ष्मी दाई भी साथ थीं ना?”

गाँव का विकास बनाम अपना विकास
कहने को ये पंचायत सदस्य गाँव के विकास के लिए वोट डालेंगे, लेकिन सच ये है कि पहले ही अपना विकास कर चुके हैं—रिसॉर्ट में मुफ्त का खाना, AC रूम, गद्देदार बिस्तर, और जेब में मोटी रकम। अब भला इसके बाद किसे फर्क पड़ता है कि गाँव में सड़क बने या फिर नाले का पानी खेत में बहता रहे।

उत्तराखंड की इस पंचायत राजनीति में ईमानदारी उस पहाड़ी बाघ जैसी है, जिसके पोस्टर तो हर जगह हैं, लेकिन असल में वो नज़र ही नहीं आता। असली खेल तो ‘लक्ष्मी दाई’ और ‘रिसॉर्ट वाली बिरादरी’ का है।
अब कल देखना ये है कि किसके सिर ताज चढ़ता है, लेकिन ये पक्की बात है—ताज चाहे किसी के सिर पर जाए, उसकी पॉलिश पहले ही AC कमरे में हो चुकी है।

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