उत्तराखण्ड
“जनता के इलाज पर प्राइवेट लूट! ये हॉस्पिटल है या कोई प्रॉपर्टी डील?”
सरकारी अस्पताल या लूट का अड्डा?
इकतीस मार्च के बाद रामदत्त जोशी संयुक्त चिकित्सालय आएगा सरकारी नियंत्रण में!
एक्सटेंशन की नाजायज़ मेहरबानियां खत्म, मगर क्या खेल खत्म होगा?
रामनगर।रामनगर का रामदत्त जोशी संयुक्त चिकित्सालय एक बार फिर सुर्खियों में है! आखिरकार, 31 मार्च के बाद यह अस्पताल सरकार के हाथ में आने वाला है। मगर सवाल यह है कि क्या ये फैसला जनहित में हो रहा है, या फिर यहां कोई नया खेल खेला जा रहा है?
फंडिंग बंद, फिर भी पीपीपी मोड पर मेहरबानी क्यों?
वर्ष 2019 में यह अस्पताल पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मोड पर निजी कंपनी ‘सर्वम शुभम’ को सौंपा गया था। विश्व बैंक की फंडिंग पर चल रहे इस अस्पताल का एग्रीमेंट सिर्फ तीन साल का था, मगर जैसे-जैसे समय बीतता गया, इसकी मियाद को लगातार बढ़ाया जाता रहा।
विश्व बैंक ने हाथ खींच लिए, फंडिंग रोक दी, लेकिन सरकार अब भी इसे ज़बरदस्ती घसीटने पर क्यों तुली है?
धामपुर के व्यापारी चला रहे थे अस्पताल का खेल!
इस अस्पताल को जिस निजी कंपनी के हाथों सौंपा गया, उसके मालिक यूपी के धामपुर में निजी अस्पताल चलाते हैं। सवाल उठता है कि क्या उत्तराखंड सरकार को कोई काबिल संस्था नहीं मिली, जो बाहर के एक व्यापारी को जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने का मौका दिया गया?
नेताओं का दोहरा चेहरा बेनकाब!
जब अस्पताल को पीपीपी मोड में दिया गया था, तब भाजपा सरकार के कई नेता इसके समर्थन में थे। मगर जैसे ही जनता में असंतोष बढ़ा और चुनावी माहौल गर्म हुआ, रामनगर पहुंचे सांसद अनिल बलूनी के सामने जब स्वास्थ्य मंत्री धन सिंह ने पीपीपी मोड का फीडबैक मांगा, तो 90% से अधिक कार्यकर्ताओं ने इसे हटाने की मांग की!
मतलब साफ था—जनता इस मॉडल से त्रस्त थी, मगर सरकार इसे जबरन थोप रही थी।
नया खेल, अस्पताल फिर से पीपीपी के हवाले!
जब निकाय चुनाव हुए, तब विपक्ष ने अस्पताल की दुर्दशा को बड़ा मुद्दा बनाया। स्थानीय विधायक और पार्टी प्रत्याशी पर खुले आरोप लगे कि उन्होंने इस अस्पताल को निजी हाथों में देकर जनता की सेहत से समझौता किया।
लेकिन, चुनाव आते ही अस्पताल को फिर से तीन महीने का एक्सटेंशन देकर पीपीपी मोड में डाल दिया गया।
पीपीपी के समर्थन में कौन? जनता या ‘खास लोग’?
अभी इस अस्पताल को सरकार अपने खर्चे पर चला रही है। मगर सूत्रों के मुताबिक, अस्पताल में स्टाफ की तैनाती में जानबूझकर देरी की जा रही है।
मकसद क्या है?
अंदरखाने ये चर्चाएं हैं कि अगर अस्पताल में स्टाफ की कमी बनी रहती है, तो अंतिम समय में ‘मजबूरी’ का बहाना बनाकर इसे फिर से पीपीपी मोड में डालने की साजिश हो सकती है!
जनता को गुमराह करने की कोशिश!
ये सवाल उठना लाज़मी है कि जब विश्व बैंक फंडिंग बंद कर चुका, जब जनता इस मॉडल को नकार चुकी, जब सरकार खुद इसे वापस ले रही है—तो आखिर इसे बार-बार एक्सटेंशन देने का मकसद क्या है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि बड़े लोगों के हित जुड़े हैं, इसलिए जनता की आवाज़ को दबाने की कोशिश हो रही है?
अब देखना ये है कि 31 मार्च के बाद यह अस्पताल सच में सरकारी नियंत्रण में आ जाएगा या फिर कोई नया ‘मौका’ देखकर इसे फिर से निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा!




